झुकने लगें हैं वो
फिर भी खड़े रहने की कोशिशें है
गिरने लगे हैं फूल
फिर भी कलियों की उम्मीदें हैं
सूखने लगी है पत्तियाँ
फिर भी नयी आने की आस में
सिंचते हैं उन्हें रोज़ाना एक ख़्वाब से,
पानी और धूप तो पहले भी मिलते थे,
कुछ ज़रूरतें खाद दवाईओं से भी पूरी करते थे,
लेकिन प्यार, उम्मीद और ख़्वाहिशों से,
आख़िरी कोशिश जारी है,
क्योंकि बुरे वक़्त पे यही सब तो भारी है,
क्यों यह ज़्यादा प्यार अंत में ही छलकता है,
यही विशेष दुलार शुरू से इंसान क्यों नहीं करता है,
बातें करती हूँ मैं रोज़ उनसे,
काश सुनके उनमें कुछ जान आ जाये,
क्योंकि बोल नहीं सकते वो,
पर उनके जीवन की हमारी जो ज़िम्मेदारी है,
पेड़ पौधे, इस संसार में जान ले आते हो तुम,
बस देना ही सीखा है तुमने, निस्वार्थ के पर्याय हो तुम,
कितना कुछ सिखा देते हो तुम बस यूहीं,
हर मौसम में पुराने पत्ते फूल गिराकर,
अगले में नये ले आते हो बस यूहीं,
ज़िंदगी के उतार चढ़ाव को,
इस दुनिया में समय के खेल को,
उम्मीद और कोशिशों की शक्तियों को,
इतनी सरलता से समझा देते हो बस यूहीं!
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