थोड़ा कम

 कुछ कम बनी थी घर में रोटी सब्ज़ी

और चटनी भी कुछ कम थी

पर जब जाना सबने और परोसी अपनी थाली

पेट भर के खाया सबने , उँगलियाँ भी चाटी

लेकिन हुआ आश्चर्य सबको, 

की सबके खाने के बाद भी बच गई रोटी सब्ज़ी और चटनी,

अपनों के लिए कम ना हो सोचकर,

बिना कहे लिया सबने थोड़ा कम,

मन में आया कुछ ऐसा ख़याल

क्या दुनिया नहीं है अपना परिवार

काश हम सब इस दुनिया को घर माने,

समझे और जाने ,

की कुछ कम बचे है पानी, तेल और संसाधन अनेक

और बहुत कुछ ख़त्म हो रहा इस संसार में,

सब थोड़ा कम कम ले ताकि कुछ नसीब हो सभी को

जो हैं इंसान इस धरती पर और जो है आने वाली पीढ़ियों तक,

थोड़ा कम ख़रीदें, कम फेकें, कम कचरे में जाये,

और कम में भी खुश रहने की कोशिश हो पाये ।

Wow, What a life!

 Wow

What a life!

We always say

From what we see

And just see

When we dont look within

People travelling all over

Buying rich houses and rangerovers

Living the happiest life ever

Having the best jobs and careers

So amazing all of it looks

The best pages of all the books

But the story is in looking more

Deeper inside, 

Where the self resides

There are so many pages full of stories

That aren’t the best in numbers, 

But the sweetest and the best life wonders,

A caring family, a loving partner

An equal relationship, where the values matter

Having real connections with in laws and relatives

Without judgements,the truest forms of blessings,

A healthy body and mind

A routine to follow and look forward everytime

Finding happiness in little things

Able to listen to the song within

And love every moment of life

Being true to ourselves and loved ones 

Able to express, happy and sad, satisfies so much

All the true to heart talks and moments

The true times when we pursue our hobbies

When we try to follow our passion

All when we be ourselves and understand the inner self

Is when we are the happiest

Feeling blessed in those precious moments

We congratulate ourselves : Wow, what a life!

ख़ुशबू, वो छोटे शहरों की

 वो ख़ुशबू उस गाँव की,

खेतों के खुले मैदान की,

सुहानी बारिश की मिट्टी की,

या कड़ी ठंड में सिगड़ी की,

मलाई से घी बनने की,

या घी से हलवा बनने की,

समोसे कचौड़ियों की लारियों की,

हर सुबह घर दुकाने और मंदिरों से अगरबत्तियों की,

कुएं के अंदर के पानी की,

वो सारी ख़ुशबूएँ, 

बस बन गई है अब सुंदर यादें,

कहाँ नसीब हैं अब वह सब,

जो दिलाये याद वह गाँव या छोटे शहर वाला घर,

बस रह गयी है मन में याद बन,

रहते हम जो सब बड़े शहर में अब,

शहर की बात करें तो नाक बंद हो जाते हैं,

क्योंकि अब फेफड़ों के अंदर तक भी,

इस विकासी प्रदूषण के कण पहुँच ही जाते हैं,

गाड़ियों से भरी सड़के, धुएँ से भारी हवाएँ,

समझ नहीं आता, नौकरी करे या सब छोड़ वापस चले जायें,

कच्ची सड़कों को पक्की और साफ़ कर क्या ग़ज़ब का काम किया,

लेकिन उन्हीं सड़कों पे प्लास्टिक फेंक इंसान का नाम बदनाम किया,

प्लास्टिक से अच्छी तो मिट्टी  ही थी,

कच्ची थी लेकिन धरती की दुश्मन तो नहीं थी,

घी की ख़ुशबू तो क्या, देसी घी मिलना मुश्किल हो गया,

क्योंकि हमारा समय घी बनाने के लिए बहुत क़ीमती हो गया,

हलवे समोसे कचौड़ियों की ख़ुशबू तो अब सिर्फ़ चिमनी को मिलती है,

क्या करें, गुड हो या शहद, आटा दाल चावल, तेल हो या चीनी,

कुछ भी बिना मिलावट के पता नहीं कहाँ मिलती है,

क्या व्यापार का बाज़ार है,

आमला पुदीना जैसी चीज़ें भी गोलियों में बंधी मिलती है,

क्या ख़रीदे क्या खायें, समझ नहीं आता,

कुछ मिलने लगा है आजकल आर्गेनिक के नाम पे,

लेकिन क्या सच्चाई क्या है विज्ञापन, पहचानना मुश्किल हो जाता,

बाहर ढूँढने निकलो तो रस मलाई से ज़्यादा tres leches की दुकाने दिखती हैं,

कंदा भज्जी या प्याज़ के पकौड़े से ज़्यादा onion rings मिलती है,

पुराने देशी व्यंजन की जगह पास्ता पिज़्ज़ा ने जो ले ली है,

हलवे लड्डू और चिक्किओं से ज़्यादा केक पैस्ट्रिज मिलती है,

वह ख़ुशबू और सर्दियों के देशी खाने को अब ज़ुबान तरसती है ।