ख़ुशबू, वो छोटे शहरों की

 वो ख़ुशबू उस गाँव की,

खेतों के खुले मैदान की,

सुहानी बारिश की मिट्टी की,

या कड़ी ठंड में सिगड़ी की,

मलाई से घी बनने की,

या घी से हलवा बनने की,

समोसे कचौड़ियों की लारियों की,

हर सुबह घर दुकाने और मंदिरों से अगरबत्तियों की,

कुएं के अंदर के पानी की,

वो सारी ख़ुशबूएँ, 

बस बन गई है अब सुंदर यादें,

कहाँ नसीब हैं अब वह सब,

जो दिलाये याद वह गाँव या छोटे शहर वाला घर,

बस रह गयी है मन में याद बन,

रहते हम जो सब बड़े शहर में अब,

शहर की बात करें तो नाक बंद हो जाते हैं,

क्योंकि अब फेफड़ों के अंदर तक भी,

इस विकासी प्रदूषण के कण पहुँच ही जाते हैं,

गाड़ियों से भरी सड़के, धुएँ से भारी हवाएँ,

समझ नहीं आता, नौकरी करे या सब छोड़ वापस चले जायें,

कच्ची सड़कों को पक्की और साफ़ कर क्या ग़ज़ब का काम किया,

लेकिन उन्हीं सड़कों पे प्लास्टिक फेंक इंसान का नाम बदनाम किया,

प्लास्टिक से अच्छी तो मिट्टी  ही थी,

कच्ची थी लेकिन धरती की दुश्मन तो नहीं थी,

घी की ख़ुशबू तो क्या, देसी घी मिलना मुश्किल हो गया,

क्योंकि हमारा समय घी बनाने के लिए बहुत क़ीमती हो गया,

हलवे समोसे कचौड़ियों की ख़ुशबू तो अब सिर्फ़ चिमनी को मिलती है,

क्या करें, गुड हो या शहद, आटा दाल चावल, तेल हो या चीनी,

कुछ भी बिना मिलावट के पता नहीं कहाँ मिलती है,

क्या व्यापार का बाज़ार है,

आमला पुदीना जैसी चीज़ें भी गोलियों में बंधी मिलती है,

क्या ख़रीदे क्या खायें, समझ नहीं आता,

कुछ मिलने लगा है आजकल आर्गेनिक के नाम पे,

लेकिन क्या सच्चाई क्या है विज्ञापन, पहचानना मुश्किल हो जाता,

बाहर ढूँढने निकलो तो रस मलाई से ज़्यादा tres leches की दुकाने दिखती हैं,

कंदा भज्जी या प्याज़ के पकौड़े से ज़्यादा onion rings मिलती है,

पुराने देशी व्यंजन की जगह पास्ता पिज़्ज़ा ने जो ले ली है,

हलवे लड्डू और चिक्किओं से ज़्यादा केक पैस्ट्रिज मिलती है,

वह ख़ुशबू और सर्दियों के देशी खाने को अब ज़ुबान तरसती है ।

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